Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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145/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
बताए हैं जो हमें संयम-साधना में दृढ़ करते हैं जिनमें मुख्य भूख, प्यास, शीत , उष्ण, नग्नता, कामना-रहित होना, यहाँ तक कि साधना करने पर प्रज्ञा (ज्ञान) न मिलने पर भी निराश न होना वरन् प्रयास न छोड़ें। मन विचलित न करें। बारह प्रकार के तप बहुत महत्वपूर्ण हैं। मूढ दृष्टि से लोग आत्मा के सन्किट रहना, इस ध्येय को भूल कर लोक-कल्याण से छोटे बड़े उपवास व अन्य प्रकार के तप करते हैं । ब्राह्य तप में अनशन, अनोदरी, वृत्ति, संक्षेप (भिक्षाचर्या), रस त्याग, (घी, दूध, नमक) विविक्त-शैयासन (प्रतिसल्लीनता) काया-क्लेश ये लगभग परिषह सहन जैसा ही है। प्रतिसंलीनता का तात्पर्य भी मात्र एकांतवास नहीं वरन् इन्द्रिय एवं कषायों का विरोधी है। अन्तरंग तप भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं , जिनकी तरफ आम लोगों का ध्यान नहीं जाता जो निम्न हैं – प्रायश्चित कई भेद बताएं हैं लेकिन सारांश में गलत कार्य का पछतावा एवं इसके लिए खुले दिल से दोष कबूल कर पुनरावृति न करें। विनय भी चार प्रकार के हैं। ज्ञानदर्शन चारित्रोपचारा
ज्ञान से अनेकांत का बोध होगा एवं इस प्रकार हमारा व्यवहार विनम्र बनेगा।
वैयावृत्य-मन पूर्वक सेवा भाव, स्वाध्याय (आत्मचितंन), व्युत्सर्ग(त्याग) एवं ध्यान जो चार प्रकार का बताया है।
आर्त, रोद्र, धर्म एवं शुक्ल ध्यान है।
आर्त से तात्पर्य चिन्ता, भय शोक आदि है तथा क्रोध, वैर, प्रतिशोध ये रोद्र के प्रकार हैं। इनसे कोई कल्याण नहीं होता। धर्म एवं शुक्ल ध्यान और प्रकार के तप इत्यादि मुक्ति मार्ग की ओर ले जाने वाले हैं।
अन्तिम अध्याय मोक्ष तत्व के बारे में है। मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ज्ञान, दर्शन, अन्तराय सभी धाति कर्मों का इसी क्रम में क्षय हो जाता है। बंध के कारण मिथ्यात्व अविरति (व्रत न