Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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137 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार कदाचित् तुम्हारी आत्मा को मुझसे कोई क्लेश पहुँचा तो उसे क्षमा
करना । "
हालांकि गुरु भगवन्त के प्रवचन के पश्चात् कहने को कुछ शेष नहीं रहता है लेकिन उनकी वाणी को और दोहराने के लाभ की भावना से पुनः सरल, विनम्र लेखन प्रस्तुत कर रहा हूँ।
गुरु भगवन्त श्रीमद् राजेन्द्र सूरिश्वरजी ने अपनी अंतिम देशना में मुख्य रूप से शास्त्रोक्त (उत्पाद, व्यय, धोव्य, युक्तम, सत-तत्वार्थ सूत्र 5.29) कथानुसार फरमाया है कि जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है जैसा उत्पाद के साथ व्यय जुड़ा है। संसार भावना का उपशम/क्षय एवं आत्मगुणों की वृद्धि जहाँ उत्पाद है वहाँ संसार भावना का उपशम / क्षय व्यय है । यही अनंत गुणों वाली आत्मा शाश्वत है। हमारी पुरानी कोशिकाएँ नष्ट होती हैं और नई हर समय बनती रहती हैं और अंत में शरीर को पुराने वस्त्रों की तरह ही त्यागना अनिवार्य है । अतः हम ऐसा जीवन जीयें कि मृत्यु महोत्सव बने यह ध्रुव सत्य है और गुरुदेव भी उसमें अपवाद नहीं हैं। मृत्यु के पश्चात् कर्मानुसार और अच्छे बुरे भव प्राप्त होते हैं। जब तक धर्म लक्ष्य सम्पूर्ण कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्ति नहीं हो जाती ।
गुरुदेव ने अपने अनुभवों के आधार पर बताया कि जीवन में अनुकूलताएँ कम एवं कष्ट, बाधाएँ अधिक मिलती हैं फिर भी साधु एवं श्रावक दोनों ही अपनी साधना, उपासना, स्वाध्याय एवं तप की दृढ़ता पर प्रतिकूलताओं पर काफी हद तक विजय पा सकते है। साधुओं के लिए तो इनका और भी अधिक महत्व है। लोक मंगल का ध्येय भी आत्मकल्याण के द्वारा पूरा किया जा सकता है। अतः जो जीवन मिला है उसमें क्षण मात्र भी प्रमाद न करें। जैसा भगवान महावीर ने फरमाया " समयं गायंमपयाइये । " अमूल्य समय का अधिकतम् लाभ उठाएँ इसके लिए यथार्थ ज्ञान जिससे तत्वों की जानकारी हो, चित्त पर नियंत्रण हो और आत्म शुद्धि हो ऐसा दर्शन युक्त ज्ञान जो सत्य पर आधारित हो उसका