Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
View full book text
________________
खरतर तपागच्छीय देवासिय, राईय, पक्खि चउमासि... / 126
प्रभु की वन्दना करने आई अप्सराओं का एवं उनके समक्ष नृत्य करती नृत्यांगनाओं का अपूर्व वर्णन है ।
अंबरतर विहारणिआई, ललिय हंस बहु गामिणी आहिं, सकल कमल दल लोइणि आहिं । ( 26 ) पीण निरन्तर थण भर विणमिय गायल आहिं मणिकंचण पसि ढील मेहुल सोहिंअ शोणि तडाहिं | ( 27 ) वंस सद्द तंतिताल मेंलिए तिउक्खराभिराम सददमीसहा कएअं. देव नट्टि आहिं ! ( 31 ) ब्योम से उतरती ललित हंसों के जोड़ों की सुन्दर कमनीय चाल वाली, पुष्ट नितम्ब एवं स्तन वाली, कमल पत्र के समान नैन वाली, कटि में मेखला, आभूषण सुन्दर वस्त्रों युक्त अपसराऐं प्रभु के चरणों में वंदन कर रही है। ऐसे में वंशी वादन कर तरह तरह से देव नृत्यांगनाएं प्रभु के समक्ष झुक-झुक कर नृत्य कर रही हैं। प्रभु मोह रूपी अन्धकार से दूर हैं । अन्त में नंदिषेण अपने लिए एवं सभी सभासदों के लिए 'संयम' के वरदान की प्रार्थना करते. हैं। समस्त अजित शांति में जगह-जगह शांति की कामना की है।
"तं संति संतिकरं, संतिणं सव्व भया ।
संति थुणामिजिणं संति विहेऊ (देवे) में मुझे ।।
ये शेष दो सूत्र प्रभु के वंदन एंव स्तवन के हैं। गुणानुराग है एवं प्रथम 'वंदित्तु शुद्ध' प्रायश्चित्त है। तीनों ही श्रावक धर्म की पुष्टि हेतु हैं।