Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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खरतर तपागच्छीय देवासिय, राईय, पक्खि चउमासिय.../124
मल्लीनाथ प्रभु कर्मवृक्षों को उखाड़ फैकनें में हस्तिसम् है। सबके मन मयूर को हर्षित करने में नवमेघ समान हैं । जगत की अज्ञाननिद्रा हरने मे मुनिसुव्रत स्वामी नवप्रभात सम हैं। वीर प्रभु हेतु कई पद हैं -
वीरःसर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधा संश्रित। वीरे णामिहतःस्वकर्मनिचयों वीराय नित्यंनमः ।। (29) ___ वीर प्रभु विद्वानों पंडितों से पूजित हैं। सारे कर्म घोर तप से नष्ट किये हैं। उनमें केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी, धैर्य, कांति, कीर्ति स्थित है। तीर्थों की उपासना में अष्टापद, गजपद, सम्मेत-शिखर, गिरनार , शत्रुज्य, वैभारगिरी, आबू, चित्रकूट की उपासना की है। 3. अजित शांति- सकलार्हत की तरह अजित-शांति, स्तवन
भी देवसीय, राइय, प्रतिक्रमण के सिवाय, पक्खि, चऊमासी, संवत्सरी, प्रतिक्रमण में बोला जाता है। इसमें चालीस दोहे हैं, जो पूर्वाचार्य श्री नंदिषेणकृत है। शत्रुजय तीर्थ पर विराजित अजितनाथ एवं शांतिनाथ के चैत्यों के बीच में. रहकर दोनों की एक साथ स्तुति कर रचना की है। कोई आचार्य श्री नंदिषेण को महावीर जिन शिष्य तथा कोई नेमिनाथ प्रभु के शिष्य मानते हैं। शत्रुजय महाकल्प में नंदिषेण का उल्लेख है। प्राकृत भाषा में शांत रस, सौन्दर्य एवं श्रृंगार रस का अध्यात्म जगत में बेजोड़ नमूना है। रूचि अनुसार पाठक विस्तार से मूल अवश्य पढ़ें। यहाँ चन्द श्लोक उपरोक्तभाव की पुष्टि स्वरूप दिये जाते हैं।
अजिअंजिअ सव्वभयं, संतिचपसंतसव्व गय पावं जय गुरुसंतिगुण करें, दोविजिणबरे पणिवियामि।। (1)
अजितनाथ एवं शांतिनाथ दोनों जिनवर सब पापों को हरकर शांति देने वाले हैं। सातों भयों को दूर करते हैं। शांतिनाथ एवं अजितनाथ प्रभु-"सुहपवत्तणं तवपुरिसुत्तम नाम कित्तणा तहय घिई मइ पवत्तणं” सुख के दाता धैर्य एवं कीर्ति की वृद्धि करने वाले