Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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101/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
है। क्षपक-श्रेणी वाला जीव ही इस गुणस्थान को छूता है। सभी धाति कर्मों का सेनापति मोहनीय कर्म, ध्वस्त हो चुका है, अतः शेष धाति कर्म-ज्ञानावर्णीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय भी अगली अवस्था 'अयोगि केवली' में नष्ट हो जाते हैं। इनके नष्ट होने से छद्मस्थ नहीं रहते हैं एवं केवल ज्ञान के महासूर्य से मण्डित हो जाते है। चार अघाति कर्म सातावेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र के कारण, मन, वचनकाय योग शेष है। जीवमात्र के कल्याण के लिये केवल्य-लब्धि से उपदेश देते हैं। उन्हें अरिहंत पद प्राप्त है। अनंत दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यसमुल्लास, केवल ज्ञान दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व एवं शुक्ल ध्यान की , उन्हें उपलब्धि होती है। ____ 13 वे एवं 14वे सयोगीकेवली एवं अयोगी सिद्ध गुणस्थान की अन्तिम अवस्था में मन, वचन, काया का निरोध कर पांच हृस्व अक्षर के उच्चारण समय में ऐसे जीव चार अघाति कर्मों का भी क्षय कर देते हैं लेकिन जिनके वेदनीय, नाम, गोत्र, कर्मों की स्थिति, आयुष्य कर्म से अधिक है वे केवली समुद्घात-प्रक्रिया से उन कर्मों का आयुष्य कर्म के तुल्य कर लोकाकाश के समस्त प्रदेशों के बराबर व्याप्त कर एवं पुनः संकुचन कर, देह मुक्त होकर शेलेषी अवस्था में लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित-सिद्धशिला के अग्रभाग पर पहुँच जाते है। जहाँ वे अनंत निराबाध सुख, ज्ञान, दर्शन एवं क्षायिक सम्यकत्व, अमूर्त, अगुरु, अलघु स्वरूप में आत्मवीर्य सहित विराजमान रहते हैं। यह चौदहवें गुणस्थान की सिद्धगति है। "निषण्णा सव्व दुक्का, जाई, जरा, मरण, बंधन विमुक्का
___ अव्वाबाहं सोक्खं अणुवहति सयाकालं।" (जिन्होंने अपने सब दुःखों का जन्म, जरा, मरण, का सर्वथा अन्त कर दिया है और चिरकाल अव्याबाध सुख का अनुभव कर रहे हैं।)