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अनेकान्त एवं स्याद्वाद/110
अज्ञान, अंध विश्वास, जड़, रूढिवाद, दीन-हीन जनता का शोषण, प्रमुख थे। महावीर परमवीर थे जिन्होंने, आत्म संयम, परिषहों, तप से, अपने को तपाकर, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य के महाव्रत का मार्ग स्वयं अपनाया, औरों को दिखाया, कथनी करनी का अन्तर मिटाया।
जीव और पदार्थ अहिंसा एवं सत्य के आलोक में अनंतधर्मी स्पष्ट होते हैं। वे ही ज्ञान दर्शन के आवरण से मोह माया लिप्तता अंतराय भावना से कई प्रकार के मिथ्यात्व में बदल जाते हैं। . जैसे
(1) अभिग्राहक मिथ्यात्व - अपनी मानी हुई मान्यता में ही कट्टरता। जैसे पशुबलि में कुर्बानी मानकर आज भी कई जातियाँ इसे धार्मिक आचरण मानती हैं। अपने कषायों आदि का त्याग किया जाना धार्मिक है। एक जाति दूसरी जाति सम्प्रदाय से घृणा करती है। ऊंच नीच का भेदभाव गलत है।
(2) अनाभिग्रहीत मिथ्यात्व-यह सत्य की साधना नहीं है। सब धर्मों को प्रमादवश बराबर समझना। यह विवेक शून्यता है। जो जैसा है , उसे वैसा समझते हुए स्वयं राग द्वेष से अभिभूत न होना सम्यग् दर्शी होना है । हरिभद्र सूरी ने कहा -
पक्षपातों न मे वीरेन द्वेष कपिला दिषु ।
युक्तिभर वचनं यम्य तम्य कार्यः।। पक्षपात रहित विवेक सहित यथार्थ का ज्ञान, श्रम साध्य धैर्य से वैज्ञानिक तटस्थता से जानना जरूरी है।
(3) अभिनिवेसक मिथ्यात्त्व-दुरारग्रह वश सत्य समझते हुए .. भी उसे स्वीकार न करना, हठधर्मिता है। कुतर्क से अपने गलत पक्ष को सच्चा बताना। पूर्वाग्रह के कारण सत्य स्वीकार न करना, इसमें आता है।
(4) संशयात्मक मिथ्यात्व-मूढमति , स्वार्थ वश ,निग्रन्थ वचन को भी, संशय की दृष्टि से देखें क्योंकि आकांक्षा युक्त,