Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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115 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
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सकेंगें। जो मूल रूप है, वह प्रमाण होगा और जो अंशरूप है वह नय है । कथंचित या अपेक्षा एक विशेषता रूप में नय है । समग्र रूप में वह प्रमाण है । तत्वार्थ सूत्र के 1:6 में कहा गया है ।" प्रमाण नैयर अथिगम : ।" प्रमाण एवं नय यानी उसके बदलते पर्यायों को समझने पर ही ज्ञान यथार्थ एवं पूर्ण होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव अनुसार मूल द्रव्य में कई पर्याय बनते हैं ।
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अतः एकान्त आस्ति या एकान्त नास्ति उचित नहीं है। एक ही व्यक्ति पिता भी है पुत्र भी है, चाचा भतीजा भी है। सोने की धातु से कई वस्तुए बनाई जा सकती हैं।
स्याद्वाद के प्रमुख व्याख्याकार श्वेताम्बर मुनियों में सिद्धसेन हुए हैं, जिन्होंने सन्मति - तर्क में इसकी प्रभावोत्पादक व्याख्या की है । दिगम्बर आचार्य समन्तभद्र ने यही कार्य "आप्त मीमांसा" में किया है। विरोधी दिखने वाले धर्मों में वास्तविक अविरोध का प्रतिपादन हेमचन्द्राचार्य ने कर यथार्थ समन्वय बताया है ।
डॉ. हरमन जैकोबी ने लिखा है, 'स्याद्वाद से समस्त सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है। यह विभिन्न धर्मों, दर्शनों, मतों, सम्प्रदायों में विवादों में समन्व्य की आधारशिला है।' अलबर्ट आइन्स्टाईन, जिन्हें अपने गुरुत्वाकर्षण के सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर नोबेल - विश्व पुरस्कार 1921 में मिला, उन्होंने अपनी पत्नी को यह सापेक्षिक-सिद्धान्त इस तरह संक्षेप में समझाया कि "जब एक व्यक्ति एक सुन्दर स्त्री के सामने बैठकर एक घंटा बिताता है तो वह समय उसे एक मिनट नजर आता है, इसके विपरीत यदि वह गर्म भट्टी के निकट बैठा है तो उसके लिए एक मिनट भी एक घंटे के कष्ट से भी अधिक असहनीय होता है ।"
दृष्टिकोणों की विविधता, सत्य के अनेक पहलू होना, इनका सार है, लेकिन मोटे रूप में व्यवहार में एक ही वस्तु निश्चय - नय से अलग एवं व्यवहार - नय से अलग प्रतीत होती है। भौंरा काले