Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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सम्यक् दर्शन/92
6. स्थिरीकरण- "सत्य साधना में चूक होगी, अपराध भाव
नहीं लाना, यह स्वाभाविक है फिर तत्काल अपने को मार्ग पर आरूढ कर लेना स्थिरीकरण है। गाली आधी निकली, रूक जाना वही। कहना माफ करना, क्षमा करना। रास्ता मिलते ही लौट आना।" कर्मोदय से दुख आने या स्थिति विपरीत होने पर और भयभीत क्षुब्ध होकर, अनीति के गर्त में गिरकर अनंतानुबंधी कषाय बंधन, सत्य और सम्यग्दर्शन की राह नहीं है बल्कि उन संकेतों से सावधन होकर पुण्य पथ
में स्थिर होने पर पुरूषार्थ करना स्थिरीकरण हैं। 7. वात्सल्य- प्रार्थना की भीख का उल्टा है, इसमें दोनों लेते
देते है। जैसे "माँ दुलार देती है बच्चा भी उसे समर्पण देता है।" यह स्वाभाविक क्रिया, सत्य मार्ग की है। अत्यन्त विनम्रता से सत्य समझने की चेष्टा करते हैं एवं सत्य चहूं
ओर बरसता है, एसे झरने फूटते हैं कि जितना बाँटते हो, पानी उलीचते हो, तो नया पानी आता है। ऐसी भावना से स्वामी वात्सल्य होता है अर्थात सर्वजन हिताय में स्वहित
जगत आत्मवत लगता है। 8. प्रभावना- इसका कोई पर्याय नहीं। इस भांति जीओ कि
धर्म की प्रभावना हो। धर्म झरे। जहाँ से गुजरों, वहीं लोगों के हृदय में स्नेह की लहर दौड़ जावे। सत्य की ओर वे उन्मुख हो जावे। सत्य तुम्हें मिलने लगे तो औरों में भी बाँट देना, कंजूसी मत कर देना, नहीं तो वह बाद में ओझल न हो जावे। तुम्हारा सत्संग उन्हें रूपान्तरित कर दे। सिद्ध होने के भ्रम में मत रहना। अंतिम क्षण तक भूल होती रहेगी। दुष्कृति को तत्काल मन, वचन काया से हटा लेना। घोड़े की रास खींच ली। अपनी उपस्थिति से स्वतः लोग प्रभावित हो, प्रेरित हो। यही प्रभावना है। गुणानुराग की परस्पर भावना हो।