Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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. गुण स्थान/98
मुनि की तरह संवर या आत्मानुशासन से कर्म-बन्धन, अल्प करता है। इस चौथी अवस्था में जिनेश्वर प्ररूपित तत्वों में पूरी आस्था होते हुये भी एवं हिंसा से विरति होते हुये भी इतनी दृढ़ता नहीं कि महाव्रत जैसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपिरग्रह एवं संयम ग्रहण कर लें क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणीय कर्म एवं इष्ट-वियोग, अनिष्ट-योग से क्षुब्ध हो जाता है।
5. देश विरत- अब न केवल राह स्पष्ट है वरन् मन की दृढ़ता इस कद्र बढ़ी है कि कुछ व्रत सहर्ष स्वीकार कर लेता है, उन्हें अपना सुरक्षा कवच मानता है। करण, करावण, या अनुमोदन के तीन रूपों में से व्रत के कुछ रूप ग्रहण कर लेता है। अब अप्रत्याख्यानावरण मिटने से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, चतुष्क के साथ अप्रत्याख्यानीय चतुष्क भी मिट जाता है। अभी इस अवस्था की उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम करोड़ वर्ष पूर्व है। श्रावक की यह श्रेष्ठ भूमिका है। अभी सभी कर्म बंधन सम्भव है। महाव्रतों को स्थूल स्वरूप में सब या कुछ को अपनाता है । .
6. प्रमत्तसंयत- व्रतों की भावना.. में दृढ़ता होने से प्रव्याख्यानावरणीय मोहनीय-कर्म और उपशांत हो जाते है। सर्व व्रत ग्रहण करता है। साधु जीवन के महाव्रत अपनाता है, फिर भी यह 'प्रमत्त संयत अवस्था कहलाती है क्योंकि अभी आलस्य, प्रमाद, लम्बी निद्रा, आत्म विस्मृति, विषयचिंतन, कषायों एवं विकथा से मुक्त नहीं है। अभी मनोज्ञ अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध, अवचेतन मन की विस्फोटक शक्ति की प्रतिक्रिया असावधानीवश सम्भव है। आर्त, रौद्रध्यान के वशीभूत हो जाता है। अभी मन, वचन काया की चंचलता मिटी नहीं है। धर्म ध्यान सधा नहीं। पांच समिति , तीन गुप्तियों, द्वारा सतत् जागरूकता आवश्यक है। सभी कर्म बंधन संभव है। इसकी स्थिति भी कुछ कम करोड़ वर्ष पूर्व है। ____7. अप्रमत्त संयत- साधु जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति है। प्रमादों पर विजय पा ली है। हालांकि अनेक भवों से अर्जित मोहनीयकर्म-जिसमें संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति,