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गुण स्थान/96
करते हुये की अवस्था है, AM गिरकर अभी
घोर अन्याय आदि कृत्य करते हैं, जैसे शिशुनाग दोनों मुँह से शरीर पर मिट्टी लपेटता है उसी तरह ऐसे जीव घोर-आठों कर्म-बंधन करते रहते हैं, जिन्हें भुगतना अनिवार्य है।
अतः जीव अनादि अनंत काल तक भवसागर में भटकता रहता है। कृष्ण कापोत, नील लेश्याओं के समस्त लक्षण मुख्यतः प्रचण्ड वैर, क्रोध, अभिमान से वे ग्रस्त होते हैं, लाख समझाने से नहीं समझते हैं। 'शतरंज खेले राधिका, कुब्जा खेले सारी वाकिनिशदिन जीत है वाकि= (कुब्जा) निशदिन हारी।' सच्चा धर्म अहिंसा, संयम एवं तप है, वीतराग भाव है लेकिन इस अवस्था में विपरीत भावों एवं कर्मों में जीव की रूचि होती है, सत्य धर्म आदि में रूचि व ग्राहकता का अभाव होने से जीव को लाभ नहीं मिलता है)
2. दूसरे गुणस्थान का नाम सासादन है। यह सम्यक-रत्नशिखर से च्युत या सम्यकत्व से गिरकर अभी मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त होने की अवस्था है, वैसी ही जैसी की खीर खाकर वमन करते हुये को खीर का स्वाद अनुभव करने पर होता है। ऐसे जीव ने पूर्व में औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त किया था लेकिन अनंतानुबँधी कषायों के कारण, कर्मों के उदय से यह पतन अवश्यम्भावी होता है, जिसकी स्थिति जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट छः अवलिकाएँ यानी कुछ पल मात्र है।
3. सम्यग् मिथ्या दृष्टि- यह मिश्र गुणस्थान कहलाता है। यह भी सम्यक्त्व की उच्च अवस्थाओं या अविरत सम्यक्त्व से पतन की अवस्था है, या प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान जाने के समय की जघन्य अन्त मुहूर्त की अल्प अवस्था है। इसमें आयुष्य बंधन नहीं होता है। बुद्धि एवं विवेक विकास अभी दुर्बल है। निश्चय नहीं कर सकता है कि सम्यक् दर्शन ही सही मार्ग है यद्यपि उसे जानने लगता है। उसका दही एवं गुड़ के मिश्रण की तरह सम्यक्त्व का मिठास एवं मिथ्यात्व के अम्ल का भी अनुभव करता है। इस अवस्था में उसका मरण नहीं होता। इससे गिरकर दूसरे गुणस्थान में मरण होने पर नरक, तिर्यच आदि गति होती है।