Book Title: Jaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Author(s): Chhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
Publisher: Rajasthani Granthagar
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गुण स्थान
आत्मगुणों के क्रमिक प्रकटीकरण की उत्तरोत्तर श्रेष्ठ अवस्थाओं को जैन-दर्शन में गुणस्थान कहा गया है। जितने-जितने कर्मफल दूर होते हैं, आत्मा की उतनी-उतनी श्रेष्ठ आध्यात्मिक भूमिका होती है। वे संख्यातीत हैं, लेकिन मोटेरूप में से उन्हें चौदह अवस्थाओं में जैन दर्शन में वर्गीकृत किया गया है। इस प्राचीन आगमिक विषयवस्तु का 'षड्खण्डागम् ' में विशिष्ट स्थान है। तत्वार्थ सूत्र (उमास्वाति रचयित) एवं उनके द्वारा उस पर 'स्वोपज्ञभास्य' पर सिद्धसेनगणि द्वारा रचयित टीका में एवं पूज्यपाद देवानंदि द्वारा तत्वार्थ 'सवार्थसिद्धि' टीका में इनका विस्तृत वर्णन है। 1. मिथ्या दृष्टि गुणस्थान। 2. सासादन सम्यग् दृष्टि गुणस्थान । 3. सम्यग् मिथ्या दृष्टि गुणस्थान । 4. अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान । 5. देश विरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान । 6. प्रमत्त संयत गुणस्थान। 7. अप्रमत्त संयत गुणस्थान। 8. निवृत्ति बादर गुणस्थान। 9. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान। 10. सूक्ष्म संपराय गुणस्थान।