Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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“१२]
[ आत्मवाद-सूत्र
(१२) नप्पा कत्ता विकत्ता य, दहाण य सुहाण य। --
उ०, २०, ३७ टीका-यह आत्मा ही अपने लिये स्वय सुख का और दुख का कर्ता है-कर्मों का बाधने वाला है और कर्मों को काटने वाला भी यही है।
अप्पा कामदुहा घेण. अप्पा मे नन्दणं वणं ।।
उ०, २०, ३६ टीका-सन्मार्ग में प्रवृत्ति करने की दशा में यह आत्मा स्वयखुद के लिये कामदुग्ध धेन-यानी इच्छा पूर्ति करने वाली आदश : देव-गाय के समान है । नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलन की दशा में यह आत्मा स्वय नदन वन के समान है। पवित्र आर सेवा मय कार्य करने से यह आत्मा स्वय मनोवाछित फल दन वाली हो जाती है। स्वर्ग और मोक्ष के सुखो को प्राप्त करान वाली स्वय यही है ।
(१४ ) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूड सामली।
उ०,२०, ३६ टीका-यह आत्मा ही स्वय-खुदं के लिये अनीति पूर्ण माग पर चलने से वेतरणी नदी के समान है, और पाप पूर्ण कार्यो म फसे रहने की दशा में कूट शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्माग गामी होने की दशा में आत्मा स्वय अपने लिये वेतरणी और कूट भादमली वृक्ष के जैसे नानाविध दुखो को पैदा कर लेती है।