Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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२७८]
[प्रशस्त-सूत्र
(४) आणाए अभि समेच्चा अनुमोभयं ।
आ०, १, २२, उ, ३ ।। टीका-जैसा वीतराग देव ने फरमाया है, उसी के अनुसार जो बानता है, जो श्रद्धा करता है, तदनुसार जो आचरण करता है, तदनुसार जो प्ररूपणा करता है, उसको संसार का भय कैसे हो सकता है ? उसको ससार का मिथ्या-मोह कैसे आकर्षित कर सकता है ? वह पुरुष कैसे कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होकर भोगो में फंस सकता है ?
सवमओ अप्पमत्तस्स नत्थि भय ।
__आ०, ३, १२४, उ, ४ टीका-जो प्रमादी नही है, यानी जो विषय-विकार, वासना, कृष्णा आदि में फंसा हुआ नहीं है, उसको किसी भी तरह से भय, चिन्ता, अशांति, दुःख आदि नही उत्पन्न होते है 1 अप्रमादी को किसी भी ओर से भय नही है।
श्रावट्ट सोए संग मभिजाणइ ।
आ०, ३, १०८, उ, १ टीका-जो सम्यक् दर्शी है, वह आवर्त यानी जन्म, जरा, मरण लादि रूप संसार को और श्रुति रूप शब्द आदि को तथा काम-गुण रूप विषय की इच्छा को-इन दोनों के सम्बन्ध को भली-भांति जानता है। और ऐसा जानने वाला ही संसार के चक्र से तथा काम-गुणो से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।
जिया भस्खये करिस्सर उज्जोय सब लोगश्मि पाणिं !
उ०, २३, ७८