Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ महापुरुरुष-स्त्र
टीका- अपनी आत्मा को पाप से बचाने वाला, सदा जितेन्द्रिय होकर रहने वाला ससार की मिथ्यात्व पूर्ण शोक आदि धारा को तोडने वाला तथा आश्रव रहित, ऐसा सत्पुरुष ही ससार का सन्मार्ग दर्शक है | वही स्व और पर के कल्याण का उत्कृष्ट
-साधक है |
( ४५ )
पतं लूह सेवंति वीरा समत्त दंसिणो । आ०, २, १००, उ, ६
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टीका – सम्यक्त्व दर्शी आत्माए ही यानी राग द्वेप रहित वीर - आत्माएं हो काम-वासनाओ और विकारो पर विजय प्राप्त करने के लिये नीरस तथा स्वाद रहित आहार करती है, वे रूखा सूखा आहार करके आत्म बल और चारित्र बल का विकास करती है तथा ज्ञान चल से सभी प्रकार की काम वासनाओ को खत्म कर देती है ।
( ४६ )
जे गहिया सणियाणपओगा,
ण ताणि सेवंति सुधीर धम्मा । सू०, १३, १९
टीका -- जो काम निंदनीय है, अथवा जो सत् क्रियाऐं फलविशेष की प्राप्ति की दृष्टि से की जाती है, उनको ज्ञानी- पुरुष न तो स्वय करते है, और न करते हुए को अच्छा ही समझते है । सृज्जन पुरुष तो अनासक्त भाव से और सात्विक रीति से अपना जीवन-व्यवहार चलाते हैं और ईसी में स्व-पर- का कल्याण
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-समझते है ।
(४७) नारई सहई यीरे, वीरेन सहई रतिन
मा २,९९, उ, ६