Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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व्याख्या कोष ]
[ ४३१
और २ शुभ ध्यान । अशुभ ध्यान के भी दो भेद है :-१ आर्त ध्यान और २ रौदू ध्यान । शुभ ध्यान के भी दो भेद है -१ धर्म ध्यान और २ शुक्ल ध्यान । रोने, चिल्लाने, स्व को अथवा पर को दुखी करने, शोक करने, हिंसा आदि के विचार करने, इत्यादि अशुभ प्रवृत्तियो की ओर मन, वचन, काया की शक्ति को स्थिर करना अशुभ ध्यान है । आत्मचिन्तन, ईश्वर-भजन, पर-सेवा, सुसिद्धान्त विचारना, अनिष्ट-हिंसक विचारो से निवृत्ति आदि सात्विक और श्रेष्ठ विचारधारा की ओर शरीर, वचन और मन की वृत्तियो को सुस्थिर करना ही शुभ ध्यान है।
२-धर्म
जो क्रियाएँ आत्मा को पाप से वचावे और आत्मा के गुणो का विकास करें, वे ही धर्म है। अहिंसा, सयम, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, परिग्रह की मर्यादा और अममत्व एव रात्रि में खान-पान का त्याग आदि सत्क्रियाएं धर्म की ही अग है । ३-धर्म-ध्यान
शरीर की और वचन की प्रवृत्ति को रोक कर चित्त को वृत्ति को धार्मिक चिन्तन में, सिद्धान्तो के विचारणा में और दोर्शनिक वातो के मनन में एव ईश्वरीय स्तुति में सुस्थिर करना, दृढ़ करना ही धर्म-ध्यान है। ४-धर्मास्तिकाय
जो व्य जीवो को और पुद्गलो को इधर उधर घूमने फिरने के समय में सहायता करता है और जिसकी सहायता होने पर ही जीव अथवा पुद्गल चल फिर सकते हैं, वह द्रव्य धर्मास्तिकाय है । यह दृव्य संपूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है, अरूपी है और शक्ति का पुज रूप है। असख्यात प्रदेशी है। "जल जैसे मछली को तैरने में सहायक है" वैसे ही जीव और पुद्गल की गति में यह दव्य सहायक होता है। "रेडियो में शब्द-प्रवाह' के प्रवाहित होने में अनेक कारणो में से एक कारण यह दव्य भी है।