Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 520
________________ __४५२] [व्याख्या कोष जाती है, आत्मा में जो कुसंस्कार दृढीभूत हो जाते है, उन्हे ही "वासना" शब्द द्वारा पुकारा जाता है । ५-विकथा । - जो कथा नैतिकता, चारित्र, और उच्च आचरण के विरुद्ध हो, जिस कथा के कहने से नैतिकता, चारित्र और उच्च आचरण में दोष आता हो अथवा पतन की शुरुवात होती हो, उसे "विकथा" कहते है। “विकथा" विपरीत कथा, घातक कथा !. विकथा के चार भेद कहे गये हैं ::- १ स्त्री विकथा, २ भोजन विका ३ देश विकथा और ४ राजविकथा । ६---विकार अच्छी बात में बुरी वात का पैदा हो जाना ही "विकार" कहलाता है। सम्यक् दर्शन का विकार "मिथ्या दर्शन" है, सम्यक्-जान का विकार "मिथ्याज्ञान" है और सम्यक् चारित्र का विकार “इन्द्रिय-भाग, कषाय का उदय, और सासारिक सामग्री में ही शक्ति का अपव्यय करना" है। इन्द्रियो के भोग पदार्थो के लिहाज से विकारो के भेद २४० कहे गये है। . ७–विपाक-शक्ति कषाय के कारण से कर्मों में जो फल देने की शक्ति पैदा होती है, उसे ही विपाक शक्ति कहते है। जिस तरह कोई लड्डू ज्यादा मीठा होता है और काई थोडा, कोई अधिक कडुआ होता है तो कोई कम, इसी प्रकार कोई ज्यादा तीखा होता है तो कोई अल्प, इत्यादि अनेक प्रकार के रस वाले होते है, उसी तरह से वधे हुए कर्म. परमाणुओ में भी अनेक तरह का फल अथवा रस देखा जाता है, किसी का रस-फलं ज्यादा शुभ देखा जाता है, तो किसी का कम, किसी का रस-फल अधिक अशुभ देखा जाता है, तो किसी का अल्प । इत्यादि रूप से कर्मों की जो फल-शक्ति है, वही "विपाक-शक्ति" के नाम से पुकारी जाती है। कर्मों के मूल भेद आठ कहे गये है, तदनुसार"विपाक-शक्ति" भी आठ प्रकार की हा है।

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