Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ व्याख्या कोष
रही और चल योग की सर्वोच्च अवस्था ही रहीं तो उस समय लेश्या की तरगें सत्यत विशुद्ध और प्रशस्त ही होगी । योग और कषाय के अभाव में लेश्या का भी अभाव हो जाता है। ' लेश्या के ६ भेद है -१ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ तेजो ५ पद्म और शुक्ल ।
१ कृष्ण लेश्या मे हिंसा, क्रोध, द्वेष, निर्दयता, वैर और दुष्टाचरण की भधानता होती है ।
२ नील में आलस्य, मद बुद्धि, माया, भोग-भावना, कायरता और अहकार की प्रधानता होती है।
३ कापोत में शोक, पर निन्दा एव कषाय की स्थिति बराबर बनी रहती है । कषाय का दबाव अपेक्षाकृत कम हो जाता है ।
४ तेजो लेश्या में विद्या, प्रेम, दया, विवेक, हिताहित की समझ और सहानुभूति की भावना रहती है। ' ५ पपलेश्या में क्षमा; त्याग, देव-गुरु-धर्म में भक्ति, निष्कपटता और सदैव प्रसन्न भावना बनी रहती है ।
६ शुक्ल लेश्या में राग द्वेष का सर्वथा विनाश हो जाता है, शोक और निन्दा से परे स्थिति हो जाती है एव परमात्म-भाव के दर्शन हो जाते है।
प्रथम तीन लेश्याओं में कषाय की स्थिति न्यूनाधिक रूप से बराबर वनी रहती हैं जबकि चौथी और पाचवी लेश्या में कषाय का क्षय और उपशम अच्छी मात्रा में प्रारम्भ हो जाता है
छट्ठी लेश्या में कषाय का सर्वथा क्षय हो जाता है । ४-लोक
जहाँ तक छ द्रव्यो की स्थिति है, वह सारा क्षेत्र लोक कहलाता है। लोक की लवाई में ऊंचे से नीचे तक १४ राजू तक की मर्यादा कही गई है, मेबकि चौडाई में केवल सात राज तक की मर्यादा वतलाई है। इस क्षेत्र. पल के अतिरिक्त शेप आकाश में छ दव्यो का अभाव है अतएव उसे लोक