Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 529
________________ व्याख्या कोष ] शोषण करना; गैर-जबावदारी के साथ अविवेकपूर्ण कार्य करना, " सावद्य-योग" है | १६ -- सिद्ध जो महापुरुष "संवर ओर निर्जरा" की आराधना करके आठों ही कर्मों का परिपूर्ण क्षय कर देतें हैं और यथास्यात चारित्र के बल पर अरिहंत होकर मोक्ष में जाते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । इन्हे ही ईश्वर और परमात्मा कहा जाता है । 4 - पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होते हैं, और वे इस प्रकार है ( १ ) तीर्थंकर होकर जा सिद्ध होते हैं; वे तीर्थंकर सिद्ध है; जैसे कि-- ऋषभ, महावीर आदि । ( २ ) सामान्य केवली होकर जो सिद्ध होते हैं; वे अतीर्थंकर सिद्ध - जैसे कि जवू स्वामी आदि । है [ ४६३ "काय ( ३ ) चतुर्विच सघ की स्थापना होने के बाद जो सिद्ध होते हैं, वे गौतम आदि गणधर । तीर्थ सिद्ध है । जैसे कि - ( ४ ) चतुर्विध सघ की स्थापना से पूर्व ही जो सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थ सिद्ध है; जैसे कि "मरुदेवी" आदि } ( ५ ) गृहस्थ के वेष में हो जिन्होने सिद्धि पाई है, वे "गृहस्थलिंग सिद्ध" है, जैसे कि भरत चक्रवर्त्ती आदि । (८) "स्त्रीलिंग" में सिद्ध होने ( ६ ) सन्यासी आदि अन्य वेष द्वारा मुक्ति पानेवाले “अन्यलिंगसिद्ध" कहलाते है । जैसे कि “ वल्कल चोरी - साधु ” आदि । चन्दन वाला आदि । (७) जैन- परम्परा के अनुसार वेष धारण करते हुए मोक्ष पाने वाले "स्वलिंग सिद्ध" है, जैसे कि गजसुकुमार आदि ! वाले 'स्त्रीलिंग सिद्ध" है, जैसे कि (९) पुरुषलिंग" में सिद्ध होने यातम आदि ! वाले 7 " है, जैसे कि पुरुषलिंग सिद्ध "

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