Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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व्याख्या कोष]
[४५९.
(६) क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के पूर्व क्षण में जो परिणाम जीव के होते है; उसे वेदक सम्यक्त्व कहते है । (७) उपरोक्त सातो प्रकृतियो का जड मूल से नाश होने पर याने आत्यंतिक क्षय होने पर, जो परिणाम जीव के होते हैं, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है । २- सम्यक् दर्शन
जो सम्यक्त्व की व्याख्या है, वही व्याख्या सम्यक् दर्शन को भी समझना चाहिये । सम्यक् दर्शन दो प्रकार से पैदा होता है - (१) स्वभाव से (२) परनिमित्त से !
(१) अनन्त काल से यह जीव नाना जीव-योनियो में भटक रहा है और अनन्त दुःख उठाता रहा है, तदनुसार भटकने से और दुख उठाने से कर्मों की निर्जरा होती रहती है, और इस कारण से देव-योग से माहनीय कर्म के हल्का पड जाने पर जीव को विना प्रयत्न के ही धर्म-मार्ग की रुचि और श्रद्धा पैदा हो जाया करती है, यही स्वभाव जनित सम्यक् दर्शन है ।
(२) पर के उपदेश से, पर-प्रेरणा से; सासारिक अनित्य पदार्थों को देख कर उन द्वारा उत्पन्न वैराग्य से, आदि कारणो से जो सम्यक् दर्शन पैदा होता है, वह पर-निमित्त जनित सम्यक् दर्शन है। ३-सम्यक् ज्ञान
सम्यक दर्शन उत्पन्न होने के बाद जीव का ज्ञान “सम्यक् ज्ञान'' कह- . लाता है।
सम्यक ज्ञान के पाचो भेरो का “मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय और केवल" का स्वरूप यथास्थान पर लिखा जा चुका है। ज्ञान ही आत्मा का असाधारण और अभिन्न मूल लक्षण है। ज्ञान की विकृति को मिथ्या ज्ञान अथवा अज्ञान कहा जाता है । ज्ञान में विकृति मोह और कषाय से पैदा हुआ करती है। ४-समाधि मन, वचन और काया की प्रवृत्तिमय चंचलता को हटा कर इन्ने