Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 525
________________ [ ४५७ व्याख्या कोष ] वितर्क सविचारे, २ एकत्व वितर्क अविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया- अप्रतिपाति मोर ४ व्युपरत क्रिया अनिवृत्तिं । ८- शुभ - ध्यान श्र ेष्ठ, आदर्श, सात्विक विचार प्रवाह को शुभ ध्यान कहते हैं । धर्मव्यान और शुक्ल - ध्यान को " शुभ ध्यान" के अन्तर्गत गिना जा सकता है । · ९ - शुभ- योग t मन, वचन, और काया की अच्छी प्रवृत्ति को, निर्दोष भाषा-शैली को और सात्विक विचारो को ही शुभ योग कहते है । मन शुभ योग, वचन शुभ योग, और काया शुभ योग, ये तीन इसके भेद कहे जाते है ! शुभ योग का विस्तृत और विकसित रूप ही पाच समिति एव तीन गुप्ति है 1 १० - शुभ - लेश्या “लेश्या” का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है । छ लेश्याओ में से कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याऐं तो अशुभ है और तेजो, पद्म आर शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याऐं कही जाती है । ष १ - षट् - काय पृथ्वी काय, अप काय, तेउ काय, वायु काय, वनस्पति काय और स काय, ये षट्–काय कहलाते है । प्रथम से पाँचवें तक एकेन्द्रिय जीव ही है । इनके केवल शरीर ही होता है । त्रस काय में दो इन्द्रिय जीव से पांच इन्द्रिय चाले जीवो की तथा मन सज्ञा वाले जीवो की गणना की जाती है । १ २- षट् द्रव्य १' धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, - ४ काल द्रव्य, ५ जीवास्तिकाय, और ६ पुद्गलास्तिकाय ' 1

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