Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 522
________________ ४५४ ] [ स्याच्या कोष ४ - जिह्वा इन्द्रिय के लिये - खट्टा मीठा; कडुआ, कषायला और तीसा । ५ - शरीर के लिये : ठड़ा, गरम, रूखा, चिकना, भारी, हलका, खरदरा और सुंहाला । इस प्रकार पाचो इन्दियो के कुल २३ विषय हैं । १३- वीतरागता वीतरागता के दो भेद है; १ औपशमिक वीतरागता और २ क्षायिक्क वीत सगता । जहाँ मोहनीय कर्म के २८ ही भेद, याने दर्शन मोहनीय के ३, कषाय के १६ और नो कपाय के ९, इस प्रकार कुल २८ ही प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाय; उस अवस्था को औपशमिक वीतरागता कहते है, और यह अवस्था ११ वे गुणस्थान की मानी जाती है । जहाँ उपरोक्त २८ हो प्रवृत्तियो का जड़ मूल से आत्यतिक क्षय हो जाता है, जो फिर कभी भी पुन: उत्पन्न होने वाली नही है, ऐसी क्षायिक अवस्था को " क्षायिक वीतरागता " कहते है । यह अवस्था बारहवे गुणस्थान से प्रारभ हो जाती है जो कि मोक्ष प्राप्ति के बाद भी वरावर कायम रहती है । क्षायिक वीतरागता ही अरिहत अवस्था है, जो कि सिद्ध अवस्था के रूप मे परिणित हुआ करती है । औपशमिक वीतरागता अस्थायी होती है; - जो कि शीघ्र ही पुन. कर्मों के उदय होते ही अवीतरागता के रूप मे परिणित हो जाती है 1 - राग और द्वेप पर विजय प्राप्त करना ही वीतरागता है । माया और लोभ से राग की उत्पत्ति होती है; तथा क्रोध और मान से द्वेष की उत्पत्ति हुआ करती है । - १४ - वीतराग सयम ग्यारहवे गुणस्थान में रहे हुए आत्मा का संगम औपशमिक वीतरागं सयम है । तथा बारहवे, तेरहवे और चौदहवें गुणस्थान में रहे हुए आत्माओ

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