Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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व्याख्या कोष
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भेद कहे गये है :-१ प्रकृति-बध, २.प्रदेश-वध, ३ स्थिति-वध और ४ अनभाग-वेध, इनकी व्याख्या इसी कोप में यथास्थान पर दी जा चुकी है। २ बहुश्रुत
जिस ज्ञानी पुरुष का, शास्त्रो का वाचन, मनन, चिन्तन और विचारणा खूब ही गहरी, विस्तृत और प्रामाणिक हो, वह "बहुश्रुत" कहलाता है।
३ वाल ___ विवेक और व्यवहार से हीन पुरुप, मूर्ख बुद्धि वाला और अनभिज्ञ पुरुष । ४ वाल तप
"उपरोक्त स्थिति वाले वाल पुरुप" की तपस्या वाल तप कहलाती है। अज्ञान, मविवेक और मिथ्यात्व के आधार से वाल पुरुप की तपस्या "वालतप” ही है । बाल-तप शरीर को कष्ट देने वाला मात्र है, इससे आत्म-गर्दै का विकास नही हो सकता है और न कर्मों की निर्जरा ही हो सकती है, अतएव शास्त्रो में इसे हेय, जघन्य और व्यर्थ कष्ट मात्र ही कहा गया है।
भ
१ भव्य
जो जीव कभी भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आराधन कर के मोक्ष जाने की स्वाभाविक शक्ति रखता हो, वह भव्य कहलाता है । भव्य प्राणी के लिये कभी न कभी एक दिन ऐसा अवश्य आता है, जव कि वह पूर्ण सम्य. क्त्वी बन कर अवश्य ही मोक्ष में जाता है।
किन्तु शास्त्रो में ऐसा भी उल्लेख है कि कई एक भव्य आत्माएं ऐसी भी है, जो कि भव्य-गुण वाली होती हुई भी सम्यक्त्व-प्राप्ति का सयोग उन्हें नहीं मिलेगा, और इसलिये वे मुक्त भी नही हो सकेगी।
२ भाव
___ आत्मा मे समय-समय पर होने वाली विभिन्न प्रकार की विचार-चाय ही "भाव" है। भाव के ५ भेद कहे गये है :-१ औपशमिक-भाव, २ क्षायिक