Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 515
________________ व्याख्या कोष ] [४४७ इन तीनो का सम्मिलित रूप से विकास होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हुआ करती है, किसी भी एक के अभाव में मोक्ष नही प्राप्त हो सकता है। २-रति मोह के वश से इष्ट पदार्थो में; प्रिय पदार्थों में प्रेम रखना, उनकी वाछा करना, रति है। विषयो से सबधित भौतिक-सुख में उत्सुकता रखना "रति" है। यह नोकषाय का एक भेद है 1 ३-रस इन्द्रियो और मन द्वारा भोगे जाने वाले सासारिक-सुख में जो "एक सुख रूप अनुभूति होती है, वह रस है । खाने, पीने, देखने, सूंघने, के पदार्थों में तथा स्त्री-पुरुप को परस्पर में और सासारिक विचार-धारा में,इन्दियो द्वारा तथा मन द्वारा जो सुख अथवा आनद का अनुभव होता है, उसे ही "रस" कहते है । स्थूल रूप से "रस" के पाच भेद दूसरे भी कहे गये है, वे ये हैं -(१) तीखा (२) कडुआ ( ३ ) कषायला ( ४ ) खट्रा और ( ५ ) मीठा । ४-रोग माया और लोभ के सम्मिलित सयोग से आत्मा में जो विचार धारा उत्पन्न होती है, वही "राग" है । इन्द्रियो के तथा मन के इष्ट एव प्रिय पदार्थों मे जो एक प्रकार का मोह-भाव, अथवा उत्सुकता भाव या वाछा-भाव प्पैदा होता है, वही ''राग" भाव है । राग-भाव में कपट और लालच का समिश्रण रहता है। ५-राजस् गृहस्थाश्रम और राज्य-व्यवस्था को चलाने के समय में जिस ढग की मनोवृत्ति होती है, तथा जैसा जीवन का आचरण होता है, एव जैसी जैसी कपाय की प्रवृत्ति होती है, वह सब "राजस्" भावना के अन्तर्गत समझा जाता है प्रकृति से सम्बन्धित सासारिक.आत्मा के वैदिक साहित्य में तान गण चताये गये हैः-१ तामस्, २ राजस् और -(-३ ) सात्विक !- 15

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