Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 510
________________ ४४२] [व्याख्या कोष वस्त्र आदि सहज भाव से सुविधा पूर्वक गृहस्थो से ग्रहण करता रहता है, इसे ही "मधुकरी'' कहते है। ३-मन. पर्याय ____ आत्मा की शक्ति के आधार से ही विना इन्दियो और मन की मदद लिए ही दूसरो के विचारो को जान लेना, दूसरो के मन की भावनामो को समझ लेना ही मन पर्याय ज्ञान है । यह ज्ञान सिर्फ उच्च चारित्र वाले और दृढ सम्यक्त्वी-मुनिराजो मे से किसी किसी को ही उत्पन्न हुआ करता है । आज कल ता इतना उच्च कोटि का ज्ञान किसी को भी नही हो सकता है। इसके दो भेद है;-१-ऋजुमति मन पर्याय और २ विपुलमति मनः पर्याय ।। ४ मनो-गुप्ति - मन की चचलता को, अस्त-व्यस्तता को और बुरे विचार-प्रवाह को रोकना, एव इनके स्थान पर सद् विचारो के प्रवाह को प्रवाहित करना "मनोगुप्ति है।" ५ ममता किसी पदार्थ के प्रति मेरापन रखना, कुटुम्बी-जनो के मोह में अंधा हो जाना, बाह्य आदर-प्रतिष्ठा-यश-सन्मान-पद की इच्छा रखना और अपने स्वार्थ को ही सब कुछ समझना "ममता" है । ६ महात्मा जिसकी आत्मा बुराइयो से और पापो से रहित हो गई हो और जिसके सारे जीवन का समय, प्रत्येक क्षण, परोपकार में, पर-कल्याण मे, पवित्र विचारो में तथा ईश्वर की भक्ति में ही व्यतीत होता हो, वही महात्मा है। ७ महाव्रत 'जीवन भर के लिये जिस व्रत का परिपालन मन, वचन और काया की पूरी-पूरी सलग्नता के साथ किया जाता हो, कराया जाता हो और कराने की अनुमोदना की जाती हो, ऐसा प्रत "महाव्रत" कहलाता है।

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