Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[व्याख्या कोष
१-नरकगति
महान् पापी, चोर दुष्कर्मी, महा मारभी और महा परिग्रही जीव के लिये पाप कर्मों का फल भोगने का स्थान-विशेष। ऐसे म्यान सात कहे गये है। जहां वनंत भूत्र-प्यास के साथ अनन्न सर्दी गरमी के दुख, एव दूसरे नानाप्रकार के दुख भोगे जाते हैं। २-नवतत्व
तत्त्व की व्याख्या पहले लिखी जा चुकी है । ये तन्त्र नो होते हैं, वे इस प्रकार है -१ जीव, २, अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आश्रव, ६ संवर, ७, निर्जरा ८, वध और ९ मोक्ष । ३-नाम कर्म
जिस कर्म के कारण से, शरीर, इन्दियां, गति, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शरीर, बनावट, चाल, स्वर, मादि गारीरिक संपूर्ण व्यवस्था का योग प्राप्त होता है वह नाम कर्म है । जैसे चित्रकार संपूर्ण चित्र का निर्माण करता है, वैसे ही यह कर्म सभी प्रकार की शारीरिक बनावट का सयोग प्राप्त कराता है। इसके १०३ नेट कहे गये हैं। ४-नियाणा
अपनी को हुई वम-क्रियाओं का, अपनी तपस्या का, अपने पुण्य का इच्छानुसार फल मांगना अथवा मनोनुकूल फल की वांठा करना नियाणा है । नियाणा करना पाप माना गया है। ५. निर्ग्रय
जिसके न तो आतरिक रूप से मोह, कपाय मादि की गांठ है और न वाह्य रूप ने किमी भी प्रकार का परिग्रह जिसके पास है, अर्थात जो वाह्य और याभ्यंतर दोनो प्रकार ने गांठ रहित है, वह साबू निग्रंय कहलाता है। दीवं तपस्वी नगवान महावीर स्वामा का यह एक विशेषण भी है।