Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ भोग-दुष्प्रवृत्ति-सूत्र
सद्दाणु गासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइयोगरूवे ।
उ०, ३२, ४० टीका-जो पुरुष शब्द आदि इन्द्रिय-भोगो मे सुख की खोज करता है, वह विविध रीति से अनेक त्रस और स्थावर जीवो की "हिंसा करता है।
(५) दुखाई अणुहोति पुणो पुणो,
मच्चु वाहि जरा कुले ।
- सू०, १, २६, उ, १ ।। टीका--भोगो मे फंसी हुई आत्माएं बार बार मृत्यु का, रोग का, 'वुढापे का, सयोग-वियोग का, आदि नाना दुःखो का अनुभव करती है।
रसा पगाम न निसेवियव्वा ।
उ०, ३२, १० टीका-इन्द्रियो पर सयम की इच्छा रखने वाले को दूध, दही. घत, तेल, मेवा, मिठाई आदि रस-वर्धक एव उत्तेजक आहार नहीं करना चाहिये।
उवलेवो होह भोगेसु, अभोगी नोव लिप्पई। उ०,२५, ४१
, टीका-पाचो इन्द्रियो के भोगो से कर्मों का ही बन्ध होता है, ‘जीव को भोगो से नानाविध आपत्तियो का और विपत्तियो का ही “सयोग होने की परिपाटी कायम होती है। और अभोगी जीव कर्मों
से 'लिप्त नही होती है। अभोगी जीव को स्थायी आनन्द और निरा‘वाघ सुख की प्राप्ति होती हैं।