Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति-सुधा.]
[२५१ कीत्ति और मान मर्यादा प्राप्त करने मात्र जितना ही है, तो उनका यह तप और सेवा कार्य शुद्ध और हितावह नही कहा जा सकता है। वल्कि ससार बढाने वाला ही कहा जायगा।
(३४) कीवा जत्थ य किस्संति, । नाइ संगेहिं मुच्छिया। ।।
___ सू०, ३, १२, उ, २ टीका-नपुसक यानी दुर्बल आत्मा वाले पुरुष अपने ज्ञाति वर्गवालो के साथ, या माता-पिता, पुत्र, भाई-वन्ध आदि के साथ मोह
मे पड़ कर और भोगो से सम्बन्ध जोड कर, कर्तव्य-मार्ग से भ्रष्ट __ हो जाते है और बाद में पश्चात्ताप करते है, इस प्रकार वे घोर दुःख उठाते है।
( ३५ ) प्रारंभा विरमेज्ज सुव्वए ।
सू०, २, ३, उ, १ टीका-आरम्भ-समारम्भ के कामो से, जीव-हिंसा और परपीडन के कामो से, वडे २ कल-कारखानो से, आत्म-हित की इच्छा वाला पुरुष दूर ही रहे। बडे २ कल-कारखाने अनीति का प्रचार करने वाले, बेकारी को बढाने वाले, जीव-हिंसा को उत्तेजना देने वाले, तृष्णा को बढाने वाले और मोह मे ग्रस्त करने वाले होते हैं।
( ३६ ) चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्त जोणियत्ताए, कम्मं पगरेंति, माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलियवयणेयां, कूड तुल्ल कूड माणेणं।
ठाणा०, ४ था, ठा, उ, ४, ३९