Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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शब्दांनुलक्षी अनुवाद ]
६३७ -- बुद्ध, ज्ञानी धर्म के पार पहुँचे हुए होते हैं ।
६३८ - "हम ज्ञानी हैं" ऐसा जो अपने आप को मानते हैं, वे समाधि से बहुत दूर है |
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६३९ - जो निश्चय में जानी है, वे ससार का अन्त करने वाले होते हैं ।
६४० - ज्ञान शाली होकर, सव प्रकार से परिनिवृत्त होकर विचरे, तथा शाति के मार्ग की वृद्धि करता रहे।
६४१ -- ज्ञानी ही भोगो को छोडता है ।
६४२ - ब्रह्मचारी के लिये स्त्री के शरीर से भय रहा हुआ है ।
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६४३ - - सपूर्ण ससार में उद्योत करने वाले जिन देव वीर प्रभु का शासन भद्र हो, कल्याणकारी हो ।
६४४ – जिसमें शील रूप पताका फरक रही है, और जिसमें तप, नियम रूप घोडे जुते हुए हैं, ऐसे श्री मघ रूप रथ के लिए भ हो, मंगल हो ।
६४५ -- जिनको सुर और अमुर सभी नमस्कार करते है और जिन्होने कर्म रूप रज का वो डाली है, ऐसे श्री वीर प्रभु मंगलकारी है |
-६४६ - भय और वैर से दूर रहो ।
६४७~~~तृष्णा एक प्रकार की सासारिक भयकर लता कही गई है, जिससे भीपण फल प्राप्त होते है ।
६४८ - निष्कामना वाला राग रहित होवे ।
६४९–आकाश सभी द्रव्यो का भाजन है और "स्थान देना " ही इसका लक्षण हैं ।
( ६५० -- तयम रूपी यात्रा के निर्वाह के लिये ही मुनि भोजन करे ।