Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ ३८१
शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
७२० --मद पुरुष के लिये (ज्ञान भी ) अज्ञान ही होता है ।
७२१ –मद बुद्धि वाले और मूर्ख बुद्धि वाले पाप दृष्टि के कारण स नरक को जाते है ।
७२२ - मद बुद्धि वाले ही मोह से ढके हुए होते हैं ।
७२३—–जैसे दुर्बल वैल ऊँची जमीन पर चढते हुए कष्ट पाते हैं, वैसे ही मूर्ख आत्माएं भी विषाद ( खेद ) पानी है ।
७२४—जैसे जाल मे फसी हुई मछली ( विषाद ) खेद अनुभव करतीहै, वैसे ही मूर्ख आत्माएं भी खेद अनुभव करती है 1
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७२५ - क्रोध को हटा दो और मान को विनष्ट कर दो ।
७२६——जा आर्य वचनो मे रमण करता है, उसी को हम ब्राह्मण कहते है ।
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७२७ - पूर्व कृत कर्मों की रज को फेंक दो ।
७२८ - रस में गृद्धि वाले मत वनो ।
७२९- रस में अनुरक्त मनुष्य के लिए कभी भी थोडा सा भी सुख कैसे हो सकता है ?
७३०—अत्यधिक मात्रा में दूध, घी, तेल आदि रसो का सेवन नही किया जाना चाहिए ।
७३१—जो रसो में तीव्र वृद्धि भाव रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है ।
७३२ – रात्रि - भोजन से विरक्ति करने वाला जीव अनाश्रव वाला होता है ।
७३३ – नो राग, द्वेष और भय से अतीत है, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं ।
७३४- राग द्वेष के आश्रित होकर बाल जन विविध पाप किया करते हैं । ७३५ - राग द्वेष आदि रूप मोह पाश तीव्र हैं और भयकर है ।