Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 494
________________ ४२६] [ व्याख्या कोषः है, एव ।जन्होने पूर्ण और अखड ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो जैन-भाषा में “अरिहत' कहलाते है, उन्हे ही "जिन" कहा जाता है। ऐसे "जिन" का चलाया हुआ धर्म ही, इनकी आज्ञा ही "जिन-शासन" है। ५-जिनेन्द्र ____ "जिन-शासन' की उपरोक्त व्याख्या के अनुसार जिन्होने राग द्वेष को पूरी तरह से जीत लिया है, ऐसे "जिनो" में, ऐसे "अरिहतो" मे जो तीर्थकर है, चार प्रकार के सघ की स्थापना करने वाले है वे "जिनेन्द्र" कहलाते हैं । “अरिहतो" मे मुख्य । “जिनो मे मुख्य महापुरुप । ६-जीव जिसमें ज्ञान है, अनुभव करने की शक्ति है, वह द्रव्य ही जीव है। नये नये शरीर धारण करता है, वही जीव है । ऐसे जीव सपूर्ण लोकाकाश में अनतानत और अपरिमित सख्या में सर्वव्यापी है। सभी जीवो में मूल रूप में समान ज्ञान, समान गुण, समान धर्म है । कर्म के कारण से विभिन्नता दिखाई देती है । प्रत्येक जीव असख्यात प्रदेशी है । ७-जैन जो "जिन" का आज्ञा और आदेश को मानता है, "जिन" द्वारा बतलाये हुए धर्म मार्ग पर चलता है, वही जैन कहलाता है । "जिन" की व्याख्या "जिन-शासन" में देखें। १-तत्त्व पदार्थों के अथवा व्यो के मूल स्वरूप को तत्त्व कहा जाता है । वस्तु का यथार्थ स्वभाव ही उसका तत्त्व है। मुख्य रूप से नौ तत्त्व कहे गये है, वे इस प्रकार है -- १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आश्रव, ६ सवर, ७ निर्जरा ८ वध और ९ मोक्ष ।

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