Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 495
________________ व्याख्या कोष ] २- तत्त्वदर्शी तत्त्वो की तह में पहुँच जाने वाले महात्मा, तत्त्वों का यथार्थ स्वरूपा नमझ लेने वाले ऋषि । ३ - तदुत्पत्ति-सबध पिता-पुत्र के समान, वीज वृक्ष के समान, जिन वस्तुओं का परस्पर में एक को दूसरे से उत्पत्ति हो, उनका परस्पर मे " तदुत्पत्ति सवव" माना जाता है, जैसे कि दूध से दही । ४— तप आत्मा को पवित्र करने के लिये, आत्मा के गुणो का विकास करने के लिए इन्द्रियो और मन के विकार को और दुर्भावनाओ को समूल नष्ट करने के लिये जो इच्छा पूर्वक कष्ट सहन किया जाता है, उसे तप कहते है । आर्यविल उपवास करना, सामायिक सवर करना, पर सेवा करना आदि अनेक भेद तप के कहे जा सकते है । [ ४२७, - ५ - तर्क कार्य-कारणो की खोज करना, परस्पर में वस्तुओ के सवध का अनु-सधान करना, अनुमान नामक ज्ञान मे सच्चाई तक पहुँचने के लिये विभिन्न वातो की खोज करना । ६. - तादात्म संबंध “आत्मा आर ज्ञान” "अग्नि और उष्णता" "पुद्गल और रूप" इनदृष्टान्तो के समान जिनका परस्पर मे अभिन्न, सहचर, मौलिक और एकस्वरूप संबंध होता है, वह तादात्म्य संबंध कहलाता है । - तामसिक ७ क्रोध आदि कपाय संवधी, मोह आदि विकार सवघी और हिंसा आदिदुष्कृत सवधी विचार और क्रियाऐं “तामसिक" कही जाती है ।

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