Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 493
________________ व्याख्या कोष] [४२५ तीन इन्द्रिय जीव (शरीर, मुंह, नाक वाले ) २ लाख चार इन्द्रिय " ( शरीर, मुंह, नाक, आंख वाले) २ " देवता जीव (पाच इन्दिय वाले ऊपर की ४, कान ) ४ तिर्यंच" (पशु, पक्षी, जलचर पाच इन्दिय वाले ) ४ नारकी" ( नरक के पांच इन्दिय वाले ) ४ । " " ) १४ मनुष्य " १--जघन्य सस्या की दृष्टि से "कम से कम,"। विशेषण की दृष्टि से "हल्का, नीच" । २-जड़ ऐसे व्य, जो कि ज्ञान से रहित है, अजीव तत्त्व । ये जड व्य अथवा अजीव तत्त्व दो प्रकार के होते है, १ रूपी जड और २ अरूपी जङ । जिनमें रूप, रस, गध, स्पर्श, सडन, गलन, विध्वसन आदि पाये जाते है, वे रूपी जड है। हमें जो कुछ भी दिखाई देते हैं, सभी रूपी जड द्रव्य है । इनका दूसरा नाम पुद्गल भी है । अरूपी जड़ मे रूप रस, गध, और स्पर्श आदि नही 'पाये जाते है, इनकी संख्या ४ है और ये चारो अखिल ब्रह्माड व्यापी है । इनके नाम इस प्रकार है -१धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्ति काय और ४ काल । ३-जागरुकता मन और इन्द्रियो को पाप से बचाने के लिये सदैव सावधान रहना । इन्द्रिय-वृत्ति पर और चित्त-वृत्ति पर प्रत्येक क्षण नियत्रण रखना। ४-जिन शासन जिन्होने क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, काम वासना, विषय-विकार आदि सभी भीतरी शत्रुओ को सर्वथा जड मूल से हमेशा के लिये नाश कर दिया है और इन शत्रुओ की पुन उत्पत्ति का जरा भी कारण वाकी जिनके नही रहा

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