Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi

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Page 490
________________ [ व्याख्या कोष ४.२२ ] ९ कार्य-कारण सबध एक की उत्पत्ति में अथवा सपादन मे दूसरे का मुख्य रूप से सहायक होना, परस्पर में जन्य - जनक सवध होना । उत्पन्न - उत्पादक संबंध होना, जैसे आटा और राटी | 1 १०- -काल समय, छः दव्यो मे से एक द्रव्य, द्रव्यो की पर्यायो के परिवर्तन मे ज़ो सहायक है । दिन, मास, वर्ष, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि इसके ही भेद है । जैनाचार्यों ने "काल" को एक प्रदेशी ही माना है । ११ -- कूट शाल्मली वृक्ष 1 +45 एक प्रकार का वृक्ष, जो कि हर प्रकार से कष्ट दायक होता है । इसकी उत्पत्ति नरक - स्थान में मानी जाती है । १२- केवल ज्ञान परिपूर्ण और अखड ज्ञान । इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद आत्मा " अरिहत अवस्था प्राप्त कर लेता है । इस ज्ञान के बल पर तीनो काल की घटनाओ का सही सही और पूरा पूरा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । सभी द्रव्यों का और उनका सभी पर्याया का परिपूर्ण स्वरूप जा सकता है । ईश्वरीय ज्ञान ही केवल ज्ञान है । इसके द्वारा जाना ग १- गणधर जैन-धर्म के मुख्य सस्थापक तीर्थंकरो के अग्रगण्य शिष्य, साधु समुदाय के मुख्य सचालक | ये तीर्थंकरो के प्रवचनो को उपदेशो का, आज्ञाओ को व्यवस्थित रूप से संग्रहित करते है । ? २ - गृद्धि पुद्गल सववी सुखो में, इन्द्रियो के भोग में, सांसारिक वासनाओ में और धन-वैभव, यश, पद- लोलुपता में एक दम मूच्छित हो जाना, मोह ग्रसित हो जाना और आत्म-भान भूल जाना ।

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