Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
३३३. '. ३२९–जितेन्द्रिय होता हुआ जो उपसर्गो को सहता है। वही पूज्य है । ३३०–जो जितेन्द्रिय है, जो सव प्रकार से परिग्रह से मुक्त है, जो कषायों
को पतला करने वाला है, वही भिक्षु है। ३३१-सारे लोक में प्राणियो के लिये जिन-याने तीर्थंकर रूप सूर्य ही - (ज्ञान-दर्शन का) उद्योत करेगे। । “३३२-जिन रूप केवली ही सब कुछ जानते है । .. ३३३–यह जीवन अनेक विघ्न बाधाओ से परिपूर्ण है, इसलिये शी
ही पूर्व कृत कर्मों का नाश कर दो। . '३३४—यह जीवन और रूप-यौवन विद्युत की चमक के समान चचल है ।।
३३५—यह जीवन-(आयु) वढाया जा सके, ऐसा नही है । ' ३३६-(महापुरुष) न तो जीवित रहने की आकांक्षा करे और न मृत्यु
की वाछा करे । । । .... ३३७-श्रेष्ठ धर्म का श्रवण करके (भोगों के लिये) जीवन की आकांक्षा
नही करे। ३३८--उपयोग याने ज्ञान ही जीव का लक्षण है। "३३९-(स्वभाव से ही) जीव बहुत प्रमादी है।
३४०-आर्य-युद्ध याने कपायो से युद्ध करना बहुत ही दुर्लभ है। ३४१-जो आतरिक को जानता है, वही वाह्य को भी जानता है, और
जो बाह्य को जानता है, वही आतरिक को भी जानता है। ३४२-जो अनन्य दी है, वही अनन्य आराम वाला है, और जा अनन्य ... आराम वाला है, ही अनन्य-दर्शी है । - ३४३-जो आत्मा है, वही ज्ञाता है, और जो ज्ञाता है, वही आत्मा है।
३४४- (ज्ञानी के लिये) जो आश्रव-स्थान है, वे ही सवर स्थान हो न जाते है, इसी प्रकार (अज्ञानी के लिये) जो सवर स्थान है, वे . .. ही आश्रव-स्थान हो जाते है । ,