Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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- २८४ ]
[ प्रकीर्णक-सूत्र
आज्ञा-व्यवहार के सद्भाव मे शेष दो निषिद्ध है ।
धारणा व्यवहार के सद्भाव में जीत व्यवहार निषिद्ध है । प्रथम चार व्यवहारो के अभाव में ही जीत व्यवहार आचरणीय है ।
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( ४३ )
पंच गिद्दी - पुत्तणिही, मित्तणही, सिप्पणी, धणणिही धन्नणिही ।
ठाणां०, ५वा ठा, उ, ३, ६
टीका -- पाच प्रकार की निधि कही गई है - १ पुत्र निधि, २ मित्र निधि, ३ ज्ञान निधि, ४ धन-निधि, और धान्य निधि ।
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( ४४ ) छविहे भावे, उदइए, उवसमिप, खइए, खयोवसमिप, पारिणामिए, संनिवाइए ।
ठाणाँ०, ६ ट्ठा, ठा, उ, १, ११५
टीका - छ प्रकार के भाव आत्मा के परिणाम कहे गये हैं :१ औदयिक २ औपशमिक, ३ क्षायिक, ४ क्षायोपशमिक, ५ पारिणामिक और ६ सान्निपातिक |
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१ - कर्मो के उदय से होने वाले आत्मा के विचार - विशेष औद- यिक भाव है । २- कर्मो के उपशम से यानी अनुदय के आत्मा मे पैदा होने वाले विचार-विशेष औपशमिक ३ - कर्मो के क्षय होने से उत्पन्न होनेवाले आत्मा के विशेष क्षायिक भाव है । ४-कर्मों में से कुछ एक के क्षय होने पर और कुछ एक के उपगम होने पर आत्मा मे उत्पन्न होने वाले विचार विशेष क्षायोपशमिक भाव है । ५-आत्मिक विचारो का स्वाभाविक - स्वरूप परिणमन ही पारिणामिक भाव
६ - संमिश्रित भावो को सान्निपातिक भाव कहते है ।
कारण से भाव है । विचार