Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सुक्ति-सुधा ]
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टीका--जो अपने आप को ज्ञानी मानते है, स्वयं को पंडित समझते हैं, तथा ऐसी धारणा रखते है कि हम तो परिपूर्ण ज्ञाता है, वे अभिमानी है, उनका आत्मविकास रुक जाता है, वे वास्तविक मार्ग से बहुत दूर है तथा उनका वाल मरण होने से अंत में उन्हें नरक गति, तिर्यंच गति आदि नीच गति की ही प्राप्ति होती है । ( १८ ) सीयंति अवहा |
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सू०, ३, १४, उ, २
टीका -- अज्ञानी पुरुष, कर्त्तव्य मार्ग से पतित होकर और भोगों में आसक्त होकर, महा दु ख भोगते है ।
( १९ ) 'कीवा वसगया गिह। सू०, ३१७ उ, १
इन्द्रियो के दास पुरुष, निर्बल आत्माकल्याण मार्ग में आने वाले उपसर्गों से, ससार मार्ग पर और इन्द्रिय-पोषण यानी सेवा मार्ग को या धर्म-मार्ग
टीका - कायर पुरुष, वाले पुरुष, स्व-पर के कठिनाइयों से घबरा कर पुन मार्ग पर चलने लग जाते है । को त्याग देते है ।
( २० ) मंदा विसीयंति, उज्जाणसि व दुब्वला ।
सू०, ३, २० उ, २
टीका - जैसे दुर्बल बैल ऊचे मार्ग मे दुख पाते है, गिर जाते हैं और महान् वेदना का अनुभव करते है, वैसे हो वासना - ग्रसित और मूच्छित मूर्ख जीव भी विभिन्न जन्मो मे नाना प्रकार के दुख उठाते है | इन्हे अनेक प्रतिकूल पदार्थों का और प्रिय वस्तुओं के वियोगों का सामना करना पड़ता है ।