Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ भोग-दुष्प्रवृत्ति-सूक कारण उसे अनेक नीच योनियो मे जन्म-मरण और नानाविध दुखों का सयोग ग्रहण करना पडेगा। । . .
जे गुणे से मूल ठाणे,
जे मूल द्वाणे से गुणे। - ___ - - आ०, २, ६३, उ, १ । -
टीका-जो आत्मा शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदिः भोगो 'में फंसा हआ है, वह ससार के राग-द्वेष रूपी कीचड मे ग्रसित है ही। इसी प्रकार जो ससार के राग-द्वेष मे ग्रसित है, वह पांचो इन्द्रियों के भोगो मे अवश्यमेव ग्रसित है, जो गुण मे यानी भोग मे है, वह मूलस्थान मे अथवा राग द्वेष में है और जो मूल स्थान. मे है, वह गुण में है ही। .:: .
5 . काम समणन्ने असमिय दुक्खे, .. 5.7 दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणु परियहई। .: , , . . . , . आ०, २, ८२, उ, ३
" .., टीका-जो मनुष्य काम-भोगो को ही प्रिय समझता है, उसके दुख कभी भी शान्त नही होते है, वह सदैव दुखी होता हुआ ही दुःखो की परम्परा, को प्राप्त करता रहता है।
(१३) जीवियं दुप्पडि बूदगं।
। आ०, २, ९३, उ, ५ टीका--जो मनुष्य काम-भोगों में फंसकर अपना जीवन पूरा कर देता है, उसको पीछे घोर पश्चात्ताप करना पड़ता है, क्योकि , जीवन तो जितना है, उतना ही रहेगा, वह तो वढाया नही जा
सकता है, बल्किा भोगो के कारण अकाल मृत्यु भी हो सकती है। ., अतएव भोग में ग्रस्त रहना मूर्ख मात्माओ की वृत्ति है। ,