Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति-सुधा]
[१८३ टीका--जो ज्ञानी आत्मा, कामों से, तथा शव्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और आसक्ति आदि से अप्रमादी है, यानी इनमें नहीं फंसा हुआ है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है; वह पाप कर्मों से और नवीन-बन्धन से छूट जाता है। इस प्रकार वह शीघ्र ही निर्वाण अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
(२२) अणोम दंसी निसणे, __पावहिं कस्मेहि ।
आ०, ३, ११५, उ,२ टीका--जो सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र वाला है, जो संयमी है, वह पाप कर्मों से निवृत्त हुआ जैसा ही है । क्योकि उसके जीवन का तो प्रत्येक क्षण आत्म-चिंतन में ही जाता है, आत्म मनन में ही जाता है। ऐसी स्थिति में उसके पाप-कर्मों के बन्धने का कारण ही क्या रहा ?
(२३) अदीगो वित्ति मेसिज्जा।
द०, ५, २८, उ, द्वि टीका-अदीन होकर यानी अपना गौरव अक्षुण्ण रख कर और आत्मा की अनन्त शक्ति पर विश्वास रखकर जीवन निर्वाह के योग्य आवश्यक वस्तुओं की खोज करना चाहिये।
(२४) जय संघ चंद ! निम्मलसम्मत्त विसुद्ध जोण्हागा।
नं०,९ टीका-निर्मल सम्यक्त्व रूपी शुद्ध चाँदनी वाले हे चन्द्र रूप श्रीसंघ ! तुम्हारी जय हो, सदा तुम्हारी विजय हो।