Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
View full book text
________________
२२
ज्ञान-सूत्र
परोक्ष। इन्ही दो ज्ञान-भेदो में ज्ञान के अवशिष्ट सभी भेदों का समावेग किया जा सकता है।
आत्म-शक्ति के आधार से उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान का समावेश तो प्रत्यक्ष ज्ञानमें किया जा सकता है, और मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम, स्मृति, प्रत्यभि ज्ञान, बुद्धि ज्ञान, कल्पना ज्ञान, और विभिन्न साहित्यिक ज्ञान का समावेश परोक्ष में किया जा सकता है। परोक्ष इन्द्रिय और मन जनित होता है।
नाण संपन्नपाए जीवे, सन्च भावाहि गम जणयइ ।
उ०, २९, ५९वाँ, ग० टीका-ज्ञान सपन्नतासे, ज्ञान की वृद्धि करने से, आत्मा विश्वव्यापी छ ही द्रव्यो का और उनकी पर्यायो का तथा उनके गुण-धर्मों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । इससे चारित्र में वृद्धि करनेका मौका मिलता है।
(८) चट्विहा बुद्धी, उपपइया, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया ।
__ ठाणा०, ठा, ४उ; ४,३१ टीका-वृद्धि चार प्रकार की कही गई है -१ औत्पातिकी. २ वैनयिकी, ३ कार्मिको ४ पारिणामिकी।
(1) किसी भी प्रसंग पर सहज भावसे उत्पन्न होनेवाली और उपस्थित प्रश्नको तत्काल हल कर देने वाली वद्धि और