Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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दर्शन-सूत्र
संमत्त दंसी न करेइ पार्य।
आ०, ३, ४, उ, २ टीका-जो सम्यक् दृष्टि है, जिसका एकान्त ध्येय ज्ञान, दर्शन और चारित्र में ही रमण करना है, जो चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोतेजागते, खाते-पीते और दूसरी क्रियाएं करते हुए भी विवेक और यतना का ख्याल रखते है, अहिसा और सेवा को ही मूल आधार मानकर जीवन-व्यवहार चलाते है, तो ऐसी स्थिति में शरीर सम्बन्धी और अन्य व्यवहार सम्बन्धी सभी क्रियाएँ करने की दशा मे भी उनको पाप कर्म नही छू सकता है । इस प्रकार सम्यक् दृष्टि पाप नही करता है । योग-प्रवृत्ति होनेपर भी वह पाप से मुक्त है।
(२) नत्थि चरितं सम्मत्त विह्वर्ण ।
. उ०, २८, २९ टीका-सम्यक्त्व के बिना, श्रद्धा के विना-वास्तविक विश्वास के विना, सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नही हो सकती है। विश्वास के. अभाव मे चारित्र केवल बाह्य साधारण आचरण मात्र है, वह मोक्ष की तरफ बढ़ाने वाला वैराग्यमय सुन्दर चारित्र नही कहा जा सकता है।
(३) दसणेण य सइहे। . उ०, २८, ३५