Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ मोक्ष-सूत्र टीका-मुक्त आत्माओं मे कभी भी वृद्धत्व नहीं आता है, यानी वाल, युवा और वृद्धत्व आदि अवस्थाओ से वे रहित है, क्योकि ये अवस्थायें पोद्गलिक धर्म वाली है, जव कि मोक्ष मे पौद्गलित्व ही नहीं है, तो फिर उनका गुण-धर्म वहाँ कैसे हो सकता है ?
सिद्ध आत्माऐ अमर है, नित्य है; सदा एक अवस्था रूप है, कर्म रहित है। जन्म-मरण तो कर्म-जनित है । जहाँ कारण नहीं है, वहाँ कार्य भी कैसे हो सकता है ? कर्म-कारण के अभाव में जन्ममरण कार्यो की सम्भावना नही रहती है।
सिद्ध आत्माऐ असग है, निरजन, निराकार है, मोह रहित है, अतएव उनमें छोटा-बडा, ऊँच-नीच, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, मातापुत्री, पति-पत्नी, राजा-प्रजा, धनी-गरीव आदि सम्वन्ध और संयोगवियोग गुण-धर्म भी वहाँ सर्वथा नही है । अतएव शास्त्रकारो ने उनके लिये “असग" विशेषण जोड़ा है, जो कि उपरोक्त स्थिति को बतलाता है।
(१०) अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयम्गे य पडिट्ठिया।
उव, सिद्ध, २ टीका-सिद्ध भगवान अलोक के नीचे है, अलोक और लोक के सधि भाग पर स्थित है । अलोक से नीचे और लोक-भाग के सर्वो'परि स्थित है । मुक्त आत्मा की उर्ध्वगति होना स्वाभाविक वस्तु है । तदनुसार आठो कर्मों के क्षय होते ही मुक्त आत्मा ऊपर की ओर गति करने लग जाती है। जहाँ तक धर्मास्तिकाय द्रव्य है, वहाँ तक वरावर ऊँचा गमन करती रहती है, धर्मास्तिकाय के समाप्त होते ही मुक्त आत्मा भी वही स्थित हो जाती है । अतएव मुक्त