Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ उपदेश-सू
१४४ ]
टीका - ज्ञानी पुरुष जीवादि तत्त्वो में सम्यक् श्रद्धा रखता हुआ परिग्रह रहित होकर कषायों का स्वरूप जाने और कभी कषायों के वश मे न होवे |
17.
ज्ञान के साथ अनासक्ति आवश्यक है और अनासक्ति का आधार अकषायत्व है ।
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( ९१ )
अन्तो वहिं विऊरिसज्ज अज्झत्थं सुद्ध मेसए । आ० ८, ९, उ, ८
टीका -- आंतरिक रूप से शुद्ध होकर यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मोह, मत्सरता आदि आतरिक दुर्गुणो से दूर होकर, इनसे शुद्धि प्राप्त कर, इसी प्रकार बाह्य रूप से परिग्रह आदि भोगउपभोग के पदार्थो से रहित होकर, सर्वथा अकिंचन और निष्परिग्रह शील बन कर आतरिक और बाह्य रीती से पवित्र होकर आत्मा की शुद्धि की कामना करे । आत्मा को परमात्मा के रूप में विकसित करे । आत्मा के गुणो का अनुसंधान करे। आत्मशक्तियो के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करे ।
( १२ )
छिंदिज्ज सोयं लहु भूय गामी ।
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आ., ३, ७, उ, २
टीका–संसार में जीवन - प्रवाह को चालू करने वाले शोकसंताप को तथा राग-द्वेष भाव को वह आत्मा छोड़ दे, जो कि मोक्ष में शीघ्र जाने की इच्छा रखता हो । शोक-सतात, आर्त्त ध्यान, छोडने में हो आत्मा का वास्तविक कल्याण, रहा हुआ है ।