Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
के प्रति द्वेष-भाव या घृणा-भाव नही लावे । सर्प-विल प्रवेश-न्याय के समान तटस्थ भाव से आहार-पानीको गले से उतार दे। .
( ३७ ) विशगरेजा समयासुपन्ले ।।
. सू०, १४, २२. टीका--उत्तम बुद्धि सपन्न साधु धनवान और दरिद्र सवको समान भाव से ही धर्मोपदेश देवे । धर्म कथा कहते समय साधु धनवान के प्रति अधिक ध्यान न दे और गरीब के प्रति कम ध्यान नहीं दे, किन्तु सबके प्रति समान भावना के साथ उपदेश दे।
ण कत्थई भास विहिसइज्जा।
सू०, १४, २३ टीका-~-जो श्रोता उपदेश को ठीक रीति से नहीं समझता है, उसके मनको साधु अनादर के साथ कोई बात कहकर नही दुखावे, तथा कोई श्रोतां प्रश्न करे, तो उसकी बात की निन्दा भी नही करे, व्याख्याता हर सयय गंभीरता का, प्रियता का, सौष्ठव का और भापा सौम्य का ध्यान रखे।
णो तुच्छए णो य विकथइज्जा ।।
सू०, १४, २१ । टीका-~ज्ञानी पुरुप पूजा-सत्कार को पाकर मान नही करे तथा अपनी प्रशसा भी नही करे । आत्मश्लाघा से दूर रहे । पूजा-सत्कार भी एक प्रकार का अनकल परिषह है। महा कल्याण के पथिक को इस पर भी विजय प्राप्त करना चाहिये।
(४०) निई च भिक्खू न पसाय कुज्जा।
सू०, १४, ६