Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति-सुधा J
- टीका — उत्तम व्रतो वाला, कत्तंव्य-निष्ठ और इन्द्रियों को वश मे रखने वाला पुरुष ही समितियो का और विवेक पूर्वक जीवनव्यवहार का, सम्यक् प्रकार से परिपालन कर सकता है ।
(३६)
जे गिव्या पावेहिं कैम्महिं अणियाणा ते वियाहिया ।
आ०, ८, १९७, उ, १
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टीका -- जिन धर्मात्मा पुरुषो ने पाप कर्म की, अनिष्ट प्रवृत्तियों की, अनैतिक कामो की निवृत्ति कर ली है, जो सदैव दान, शील, तप और भावना रूप सयम मे ही संलग्न है वे अनिदान यानी अपनी धर्म क्रियाओ का मुह मागा फल नही चाहने वाले कहे गये है । वेल्य-रहित यानी निर्दोष और पवित्र आत्मा वाले कहे गये है । उनकी गणना महापुरुपो में की गई है ।
( ३७ ) गीवारे व ण लीएज्जा, छिन्न सोए अणाविले |
सू०, १५, १२
टीका - सुअर आदि प्राणी को आकर्षित करके मृत्यू के स्थान पर पहुँचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसग है । अत. स्त्री प्रसग से दूर रहने में ही जीवन की सार्थकता है। इसी प्रकार विषयभोग में इन्द्रियो की प्रवृत्ति करना ही संसार में आने के द्वार है, इसलिये जिसने विषय-भोग रूप आश्रव द्वार को छेदन कर डाला है, वही राग द्वेष रूप मल से रहित है - वही महापुरुष है ।
( ३८ ) सव्व धम्माणु वत्तिणो देवेसु उववज्जई ।
उ०, ७, २९