Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति सुधा ]
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टीका - धीर पुरुष, स्व-पर- सेवा व्रती पुरुष, उन कारणो को और उन स्थानो को त्याग दे जो कि अभिमान को पैदा करने वाले हों अथवा अभिमान को उत्तेजना देने वाले हो । अभिमान त्यागने पर ही विनय की प्राप्ति होती है और विनय ही धर्म का मूल है । ( १९ ) विप्पमायं न कुज्जा । सू०, १४, १
टीका– प्रमाद रूप पाप का कभी भी सेवन नहीं करना चाहिये, क्योकि प्रमाद एक आतरिक भयंकर शत्रु है, जो कि जीवन शक्ति को नष्ट करता रहता है और आत्मा को पाप में डूबाता रहता है । - ( २० ) जं मयं सव्व साहूणं, तं मयं सल्लगत्तणं । सू०, १५, २४
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टीका -- जो सभी संत-महापुरुषों को मान्य है, जो सभी ऋषियों को आचरणीय है, उन्ही वातो को पाप को काटने वाली माननी चाहिये । महापुरुषो ने दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति और निष्परिग्रह को ही धर्म माना है, और इन्ही का पालन करना ही मोक्ष का मार्ग कहा है इसलिये हमे भी इन्ही को पाप को काटने वाले समझना चाहिये, तथा जीवन मे भी इन्ही को स्थान देना चाहिये ।
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( २१ ) जं किच्चा निव्वुड़ा एगे,
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पंडिया |
पावंत
सू०, १५, २१
टीका — सम्यक् - दर्शन, सम्यक् ज्ञॉन और सम्यक् चारित्र का पालन करके अनेक महापुरुष निर्वाण को प्राप्त करते है, ससार का अन्त करते है, हमें भी उन्ही का अनुकरण करना चाहिये ।