Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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सूक्ति-सुधा]
[ ९५ में अपने किये हुए कर्म से दु खः भोगते हुए प्राणी की रक्षा करने में कोई भी समर्थ नही है।
(२०) एगस्स जंतो गति रागती य ।
मू० १३, १८ टीका-प्राणी अकेला हो परलोक को जाता है और अकेला ही आता है। इस ससार में प्राणो के लिये धर्म को छोड़कर दूसरा कोई भी उसका सच्चा सहायक नही है । न धनादि वैभव के पदार्थ ही सहायक है, और न माता-पिता आदि वन्धु वर्ग ही सहायक हैं। अतएव सेवा, सद्वर्तन, सात्विकता, ईश्वर-भजन आदि पवित्र कार्यों को ही जीवन में प्रमुख स्थान देना चाहिये।
( २१ ) . . जीवियं नाभिकंखेजा, मरणं नो वि पत्थए ।
आ०, ८, २०, उ, ८ टीका--जीवन मे अनासक्त रहे । 'आसक्ति होने पर भोगों में पुन. फसने की आशका है। कर्त्तव्य से गिर जाने का डर है। अतएव धर्म-मार्ग पर चलते हुए न तो जीवन के प्रति मोह-ममता रक्खे, और न मृत्यु से भय खावे । यश-कीर्ति, सुख-वैभव प्राप्त होने पर जीवन को बहुत काल तक जीवित रखने की आकांक्षा नहीं करे, एव दु.ख, व्याधि, उपसर्ग, परिपह, कठिनाइयाँ आदि को देख कर मरने की भावना भी नही भावे । सात्विक वृत्ति वाला, कर्मण्य पुरुष केवल कर्मण्य का ही ध्यान रखे, जीवन से या मृत्यु से अनासक्त रहे।