Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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रक्षा करने वाले बनो । शाति देने वाले बनो ।
( २० ) ताइणो परिजवुडे |
[ अहिंसा-सुत्र
- ३, १५,
टीका -- जो सम्पूर्ण विश्व के चराचर प्राणियो की, त्रस - स्थावर जीवो की रक्षा करने वाले है, वे ही वास्तव मे मोक्ष के अधिकारी है । ( २१ ) पाणातिवाता विरते ठिमप्पा
सू०, १०, ६
टीका - विचार शील पुरुष, शुद्धचित्त वाला पुरुष, भाव-समाधि मे और विवेक मे रत होकर ज्ञान में तल्लीन होकर प्राणातिपात से ( जीव हिसा से ) निवृत्त रहे । हिंसा के बरावर पाप नही है और अहिसा के बरावर धर्म नही ।
२२
अणियाण भूते सुपरिव्वज्जा ।
सू०, १०, १
टीका - प्राणियो का आरम्भ नही करता हुआ और किसी भी प्राणी को कष्ट नही पहुँचाता हुआ सज्जन पुरुष अपनी जीवन यात्रा को चलाता रहे । पर सेवा में ही और पर की सहानुभूति में ही आत्म कल्याण समझे ।
२३ तस काय समारंभ, जावजीवाई वज्जए ।'
द०, ६, ४६
टीका — निरपराध जीवो की, त्रस जीवो की मन, वचन, और काया से हिंसा करना और उन्हे कष्ट पहुँचाना, उनपर आघात करना, उनका प्राणान्त करना, इन वातों को जीवन पर्यत के लिए त्याग देना ही मानवता है । यही वास्तविक मनुष्यता है ।