Book Title: Jainagam Sukti Sudha Part 01
Author(s): Kalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
Publisher: Kalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
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[ तप-सूत्र
३४]
(५) तवं कुम्वइ मेहावी।
द०, ५,४४, उ, द्वि, टीका-मेधावी का, बुद्धि-शाली का और विवेक शाली का प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक होने से वह तपमय ही होता है, वह निर्जरा का ही कारण बनता है । विवेक मे ही धर्म है।
तवेणं वोदाण जणयइ।
उ०, २९, २७वा, ग, टीका-तपसे, बारह प्रकार के तप की परिपालना करने से-तप की आराधना से पूर्व कृत कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार आत्मा निर्मल और वलवान् बनती है ।
परक्कमिज्जा तवं संजमंमि ।
द०, ८, ४१ _____टीका--तप और संयम मे सदैव पराक्रम बतलाना चाहिए, ज्योकि विकारो को जीतने के लिये सयम अद्वितीय साधन है।
(८) सव्वओ संवुडे दंते, प्रायाण सुसमाहरे।
सू०, ८, २० टीकाबाहिर और भीतर दोनो ओर से गुप्त रहे, संयम-शील रहे । हृदय में माया आदि कपाय और अशुभ ध्यानो का निवास नही होने दे, तथा बाहिर वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियो से रोके । इन्द्रियों का दमन और मयम की आराधना करता रहे । दर्शन, ज्ञान, मौर चारित्र का पालन तत्परता के साथ विशुद्ध रीति से करता रहे।