Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अजीवविषयक संवाद का वर्णन है। राजा प्रदेशी जीव और शरीर को अभिन्न मानता है और केशीकुमार उसके मत का खण्डन करते हुए जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व में प्रमाण उपस्थित करते हैं। उववाइय सूत्र की भाँति इस ग्रन्थ का आरम्भ आमलकप्पा नगरी (बौद्ध साहित्य में अल्लकप्पा का उल्लेख आता है । यह स्थान शाहबाद जिले में मसार और वैशाली के बीच में अवस्थित था) के वर्णन से किया गया है। आमलकप्पा: ___आमलकप्पा नगरी धन-धान्यादि से समृद्ध और मनुष्यों से व्याप्त थी। सैंकड़ों-हजारों हलों द्वारा यहाँ खेती की जाती थी। किसान अपने खेतों में ईख, जौ और चावल बोते तथा गाय, भैंस और भेड़ें पालते थे । यहाँ के लोग आमोदप्रमोद के लिए कुक्कुटों और साँड़ों को रखते थे। यहाँ सुन्दर आकार के चैत्य तथा पण्य-तरुणियों के मोहल्ले थे। लांच लेनेवालों, गंठकतरों, तस्करों और कोतवालों (खण्डरक्खिअ=दण्डपाशिक) का यहाँ अभाव था। श्रमणों को यथेच्छ भिक्षा मिलती थी। नट, नर्तक, जल्ल ( रस्सीपर खेल करनेवाले ), मल्ल, मौष्टिक (मुष्टि से लड़नेवाले), विदूषक, कथावाचक, प्लवक (तैराक), रासगायक, शुभाशुभ बखान करनेवाले, लंख (बाँस के ऊपर खेल दिखानेवाले), मंख (चित्र दिखाकर भिक्षा माँगनेवाले), तूण बजानेवाले, तुम्ब की वीणा बजानेवाले और ताल देकर खेल करनेवाले यहाँ निवास करते थे। यह नगरी आराम, उद्यान, कूप, तालाब, दीर्घिका ( बावड़ी) और पानी की क्यारियों से शोभित थी। चारों ओर से खाई और खात से मण्डित थी तथा चक्र, गदा, मुसुंटी, उरोह (छाती को चोट पहुँचानेवाला), शतघ्नी तथा निश्च्छिद्र कपाटों के कारण इसमें प्रवेश करना दुष्कर था। यह नगरी वक्र प्राकार ( परकोटा) से वेष्टित, कपिशीर्षकों (कंगूरों) से शोभित तथा अट्टालिका, चरिका (गृह और प्राकार के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग), द्वार, गोपुर और तोरणी से मण्डित थी। गोपुर के अर्गल और इन्द्रकील कुशल शिल्पियों द्वारा बनाए गए थे। यहाँ के बाजारों में वणिक और शिल्पी अपना-अपना माल बेचते थे। आमलकप्पा नगरी के राजमार्ग सुन्दर थे और हाथी, घोड़े, रथों और पालकियों के आवागमन से व्याप्त थे (सूत्र १)।
इस नगरी के उत्तर-पूर्व में पुरातन और सुप्रसिद्ध आम्रशालवन नामक एक १. देखिये-बी० सी० लाहा, ज्योग्राफी आफ अर्ली बुद्धिज्म, पृ० २४ आदि ।
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