Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वाले अरिष्टनेमि को नमस्कार करता हूँ। चौबीस जिनवरों को नमस्कार करता हूँ। हे क्षमाश्रमण ! आभ्यन्तर अतिचार को क्षमा कराने के लिए मैं उद्यत हूँ। भक्त, पान, विनय, वैयावृत्य, आलाप, संलाप, उच्च आसन, अन्तर भाषा और उपरि भाषा में मैंने जो कुछ अविनय दिखाया हो, उसे आप जानते हैं, मैं नहीं जानता, वह मिथ्या हो।"
प्रत्याख्यान : _ सर्व सावद्य कर्मों से निवृत्त होने को प्रत्याख्यान कहते हैं। “सूर्योदय से दो घड़ी दिन तक चार प्रकार के अशन, पान, खाद्य और वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूर्योदय से एक प्रहर दिन तक उक्त चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूर्योदय से मध्याह्न तक चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । आदिकर, तीर्थङ्कर, स्वयंबुद्ध, पुरुषसिंह, पुरुषवर-पुंडरीक, पुरुषवर-गंधहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितैषी, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतक, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मोंपदेशक और धर्मनायक अरिहंतों को नमस्कार करता हूँ।"
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